हर युवा के चहेते विवेकानन्द

वैष्णव पत्रिका :- इस लेख में, सद्गुरू स्वामी विवेकानंद के जीवन की कुछ घटनाओं के बारे में बता रहे हैं जिनसे यह पता चलता है कि अपने गुरू के साथ उनका क्या रिश्ता था और वह उनका कौन सा संदेश लोगों में फैलाना चाहते थे। रामकृष्ण परमहंस को दिव्यज्ञान प्राप्त होने के बाद, उनके बहुत सारे शिष्य बन गए। उनके एक शिष्य थे, स्वामी विवेकानंद। विवेकानंद अमेरिका जाने वाले पहले योगी थें। वह 1893 में दुनिया के धर्मो की संसद में शामिल होने समय किसी नई चीज को लेकर लोगों में बहुत आशंकाएं होती थीं, उस समय आकर उन्होने कुछ हद तक लोगों के लिए द्वार खोले। रामकृष्ण का विवेकानंद से बहुत अलग तरह का जुड़ाव था क्योंकि वह विवेकानंद को अपना संदेश दुनिया तक पहुँचाने  का एक जरिया मानते थे। रामकृष्ण यह काम खुद नहीरं कर सकते थे, इसलिए वह विवेकानंद को अपने संदेशवाहक के रूप में देखते थे। रामकृष्ण के आस-पास के लोग समझ नहीं पाते थे कि वह विवेकानंद को लेकर इतने पागल क्यो थे। अगर एक भी दिन विवेकानंद उनसे मिलने नहीं आते, तो रामकृष्ण उनकी खोज में निकल जाते क्योंकि वह जानते थे कि इस लड़के में संप्रेषण की जरूरी समझ है। विवेकानंद भी रामकृष्ण परमहंस के लिए उतने ही पागल थे। उन्होनें कोई नौकरी नहीं ढूंढ़ी, उन्होने कोई ऐसा काम नहीं किया, जो उनकी उम्र के लोग आम तौर पर करते हैं। वह बस हर समय रामकृष्ण का अनुसरण करते थे। विवेकानंद के जीवन में एक बहुत अद्ध्ुत घटना घटी। एक दिन उनकी मां बहुत बीमार थी और मृत्युशैरूया पर थीं। अचानक विवेकानंद के दिमाग में आया कि उनके पास बिल्कुल भी पैसा नहीं है और वह अपनी मां के लिए दवा या खाना नहीं ला सकते। यह सोचकर उन्हें बहुत गुस्सा वाकई भयानक होता है। वह रामकृष्ण के पास गए। वह कहीं औरनहीं जा सकते थें, गुस्से में भी वह यही जाते थें।
उन्होने रामकृष्ण से कहा, ‘इन सारी फालतू चीजों, इस आध्यात्मिकता से मुझे क्या लाभ है। अगर मेरे पास कोई नौकरी होती और मैं अपनी उम्र के लोगों वाले काम करता तो आज मैं अपनी मां का ख्याल रख सकता था। मैं उसे आराम पहुँचाना   सकता था। इस आध्यात्मिकता से मुझे क्या फायदा हुआ ?‘ रामकृष्ण काली के उपासक थे। उनके घर में काली का मंदिर था। वह बोले, क्या तुम्हारी मां को दवा और भोजन की जरूरत है ? जो भी तुम्हें चाहिए, वह तुम मां से क्यों नहीं मांगते ?‘ विवेकानंद को यह सुझााव पसंद आया और वह मंदिर में गए। एक घंटे बाद जब वह बाहर आए तो रामकृष्ण ने पूछा, क्या तुमने मां से अपनी मां के लिए भोजन, पैसा और बाकी चीजें मांगी  ? विवेकानंद ने जवाब दिया, ‘नहीं मै भूल गया।‘ रामकृष्ण बोले, फिर से अंदर जाओं और मांगो। विवेकानंद फिर से मंदिर में गए और चार घंटे बाद वापस लौटे। रामकृष्ण ने उनसे पूछा, क्या तुमने मां से वे चीजें मांगी ? विवेकानंद बोले, नहीं, अब मैं नहीं मांगूगा। मुझे मांगने की जरूरत नहीं है। रामकृष्ण ने जवाब दिया, ‘यह अच्छी बात है। अगर आज तुमने मंदिर में कुछ मांग लिया होता, तो यह तुम्हारे और मेरे रिश्ते का आखिरी दिन होता। मै तुम्हारा चेहरा फिर कभी नहीं देखता क्योंकि कुछ मांगने वाला मूर्ख यह नहीं जानता कि जीवन क्या है। मांगने वाला मूर्ख जीवन के मूल सिद्धांतों को नहीं समझता।

‘ प्रार्थना एक तरह का गुण है। अगर आप प्रार्थनापूर्ण बन जाते है, अगर आप आराधनामय हो जाते है, तो यह होने का एक शानदार तरीका है। लेकिन यदि आप इस उम्मीद से प्रार्थना कर रहे हैं कि इसके बदले आपको कुछ मिलेगा, तो यह आपके लिए कारगर नहीं होगा। विवेकानंद जब सिर्फ 19 साल के थे, तो वह बहुत तर्कसम्मत और बुद्धिमान थे। साथ ही, वह जोश से भरे हुए थे। वह हर चीज का जवाब चाहते थें। उन्होने आकर रामकृष्ण से कहा, ‘आप हर समय बस भगवान, भगवान करते रहते हैं। इसका क्या प्रमाण है कि भगवान है ? मुझे सुबूत दीजिए।‘ रामकृष्ण बहुत साधारण इंसान थे। वह पढ़े-लिखे नहीं थे। वह विद्वान नहीं, आध्यात्मिक पुरूष थें। विवेकानंद को समझ नहीं आया कि वह क्या करें कयोंकि यह तो बस पागलनपन था। वह किसी बौद्धिक जवाब की उम्मीद कर रहे थे कि बीज का अंकुरण और पृथ्वी का घूमना ईश्वर होने का प्रमाण है। मगर रामकृष्ण बोले, ‘मै इसका प्रमाण हू कि ईश्वर का अस्तित्व है।‘ रामकृष्ण के कहने का मतलब यह था कि मैं जैसा हूं, यह प्रमाण है।‘ विवेकानंद को समझ नहीं आया कि वह क्या कहे और वह चले गएं। तीन दिन बाद, उन्होंने  वापस आकर पूछा, ठीक है क्या आप मुझे ईश्वर के दर्शन करा सकते है ? रामकृष्ण ने पूछा, ‘तुम्हारे पास उन्हे देखने की हिम्मत है ?‘ उस साहसी लड़के ने कहास, ‘हॉ क्योंकि यह बात उसे परेशान कर रही थीं। रामकृष्ण ने विवेकानंद की छाती पर अपने पैर रख दिए और विवेकानंद समाधि की अवस्था में चले गए, जहां वह मन की सीमाओं से परे चले गए। वह लगभग 12 घंटे बाद समाधि से बाहर आए और जब आए, तो वह पूरी तरह बदल चुके थे। उसके बाद उन्होंने अपने जीवन में कभी कोई प्रश्न नहीं पूछां।

स्वामी विवेकानंद और रामकृष्ण का संदेश
आपने देखा होगा कि ज्यादातर गुरू अपने आप प्रसिद्ध नहीं होते। उन्हे एक अच्दे शिष्य की जरूरत होती है जो उनका संदेश फैला सके क्योंकि हो सकता है कि गुरू खुद दुनिया के तौर-तरीको से बहुत परिचित नहीं हो। आज, हर कोई रामकृष्ण परमहंस के बारे में बात करता है। रामकृष्ण की चेतनता बहुत ठोस थीं। वह एक अद्बुत चीज थीं। मगर उसके साथ ही, सांसारिक स्तर पर वह पूरी तरह अनजान थे। अगर विवेकानंद उनसे न मिलते, तो वह अपने आप में, एक भूला-बिसरा फूल बनकर रह जाते। फूल तो बहुत सारे खिलते हैं, मगर कितने फूलों को पहचान मिल पाती है ?

स्त्रियों के बारे में स्वामी विवेकानंद के विचार
एक बार एक समाज सुधारक विवेकानंद के पास गया और बोला, ‘यह बहुत अच्छी बात है कि आप स्त्रियों की भी बेहतरी चाहते हैं। मुझे क्या करना चाहिए ? मैं उनकी हालत सुधारना चाहता हू। मैं इसमें मदद करना चाहता हूं।‘ तो विवेकानंद ने कहा, ‘उनसे दूर रहो। तुम्हे उनके लिए कुछ करने की जरूरत नहीं है। बस उन्हे अकेला छोंड़ दों। उन्हे जो करना होगा, वे कर लेंगी। बस यही जरूरी है। किसी पुरूष को स्त्री की स्थिति सुधारने की जरूरत नहीं हैं। अगर वह सिर्फ उसे मौका दे, तो वह अपने लिए जरूरी चीजें कर लेगी।
एक इंसान के पास इतनी जबर्दस्त दूरदर्शिता थी और उसकी दूरदर्शिता के कारण बहुत सी चीजें हुई। आज भी, उनके नाम पर मानव कल्याण के बहुत से काम हो रहे हैं। उनकी दूरदर्शिता के कारण काफी विकास हुआ। उस समय जो बाकी लोग थे, वे कहां हैं ? मगर उनकी दृष्टि अब भी किसी न किसी रूप में काम कर रही है। उसकी वजह से काफी खुशहाली आई। अगर हजारों लोगों में यही दूरदर्शिता होती, तो हालात और भी बेहतर होते। एक गौतम बुद्ध या एक विवेकानंद की दूरदर्शिता काफी नहीं है। जब अधिकांश लोगांे में वह दूरदर्शिता होती हे, तभी समाज में वाकई खूबसूरत चीजें होगीं। वैष्णव पत्रिका 

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