पुरूषार्थ और तपस्या के प्रतीक महर्षि विश्वामित्र

वैष्णव पत्रिका :-महर्षि विश्वामित्र महाराज गाधि के पुत्र थे। कुश वंश में जन्म होने के कारण इन्हे ‘कौशिक‘ भी कहते हैं। वह अत्यंत प्रजापालक तथा धर्मात्मा सम्राट थे। एक बार वह सेना को साथ लेकर जंगल में शिकार खेलने के लिए गए। वहां ये महर्षि वशिष्ठ जी के आश्रम पर पहुंचे। महर्षि वशिष्ठ ने इनसे इनकी तथा राज्य की कुशल-क्षेम पूछी और सेना सहित आतिथ्य-सत्कार स्वीकार करने की प्रार्थना की।
विश्वामित्र ने कहा, ‘‘ भगवन्। हमारे साथ लाखों सैनिक हैं। आपने जो फल-फूल दिए, उसी से हमारा सत्कार हो गया। अब हमें जाने को आज्ञा दें।‘‘
महर्षि वशिष्ठ ने उनसे बार-बार पुनः आतिथ्य स्वीकार करने का आग्रह किया। उनके विनय को देख कर विश्वामित्र ने अपनी स्वीकृति दे दी। महर्षि वशिष्ठ ने अपने योग बल और कामधेनु की सहायता से विश्वामित्र को सैनिकों सहित भली-भॉति तृप्त कर दिया। कामधेनु के विलक्षण प्रभाव से विश्वामित्र चकित हो गए। उन्होंने कामधेनु को देने के लिए महर्षि वशिष्ठ से प्रार्थना की। वशिष्ठ के इन्कार करने पर वह बलपूर्वक कामधेनु को अपने साथ ले जाने लगे। कामधेनु ने अपने प्रभाव से लाखों सैनिक पैदा कर दिए जिसके परिणामस्वरूप विश्वामित्र की सेना भाग गई और वह पराजित हो गए। इससे विश्वामित्र को बड़ी ग्लानि हुई। उन्होंने अपना राज-पाट छोड़ दिया। वे जंगल में जाकर ब्रहर्म्षि होने के लिए कठोर तपस्या करने लगे।
तपस्या करते हुए सबसे पहले मेनका अप्सरा के माध्यम से विश्वामित्र के जीवन में काम का विघ्न आया और वह सब कुछ छोड़ कर मेनका के प्रेम में डूब गए। जब इन्हे होश आया तो इनके मन में पश्चाताप का उदय हुआ और पुनः कठोर तपस्या में लग गए और सिद्ध हो गए। काम के बाद क्रोध ने भी विश्वामित्र को पराजित किया।
राजा त्रिशंकु सदेह स्वर्ग जाना चाहते थें। यह प्रकृति के नियमों विरूद्ध होने के कारण वशिष्ठ जी ने उनका कामनात्मक यज्ञ कराना स्वीकार नहीं किया। विश्वामित्र के तप का तेज उस समय सर्वाधिक था। त्रिशंकु विश्वामित्र के पास गए। वशिष्ठ से पुरानी ‘शत्रुता‘ को स्मरण करके विश्वामित्र ने उनका यज्ञ करना स्वीकार कर लिया। सभी ऋषि इस यज्ञ में आए किंतु वशिष्ठ के सौ पुत्र नहीं आए। इस पर क्रोध पर विजय करके ब्रहर्म्षि हुए। सच्ची लगन और सतत् प्रया से सब कुछ संभव है, विश्वामित्र ने इसे सिद्ध कर दियां।
श्री विश्वामित्र जी को भगवान् श्री राम का दूसरा गुरू होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। वह दंडकारण्य में यह कर रहे थे। रावण के द्वारा वहां नियुक्त ताड़का, सुबाहु और मारीच जैसे राक्षस इनके यज्ञ में बार-बार विघ्न उपस्थित कर देते थे। विश्वामित्र जी ने अपने तपोबल से जान लिया कि त्रैलोक्य को भय से त्राण दिलाने वाले परब्रहम्म श्री राम का अवतार अयोध्या में हो गया है। फिर वह अपनी यज्ञ रक्षा के लिए श्री राम को महाराज दशरथ से मांग ले आए। विश्वामित्र के यज्ञ की रक्षा हुई। इन्होने भगवान श्री राम को अपनी विद्याएं प्रदान कीं और उनका मिथिला में श्री सीता जी से विवाह सम्पन्न कराया। महर्षि विश्वामित्र आजीवन पुरूषार्थ और तपस्या के मूर्तिमान प्रतीक रहें। सप्तऋर्षि मंडल में ये आज भी विद्यमान हैं। -वैष्णव पत्रिका

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