ऊंट की खाल पर नक्काशी –
बीकानेर में उस्तों का कला क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान रहा है । ऊंट की खाल पर सुनहरी चित्रकारी मनौती
कार्य ने काफी प्रसिद्धि प्राप्त की है । पूरे विश्व में उपयोग में आने वाले बारीक से बारीक फूलपत्ती, बेलबूटें, शाही सवारियों व शिकार के दृश्यों
के अलावा जांगली, तातला, सुनहरी व मनौती कार्य बनता है ।
बीकानेर की स्थापत्य कला – पत्थर व लकड़ी को तराश कर उसमें सूक्ष्म कार्य करके बीकानेर के कलाकारों ने अपना स्थान बनाया है ।
हमारे यहां के कलाकारों की ओर से पत्थर व लकड़ी को तूलिया की भांति छैनी हथौडी से बनाई गई कलाकृतियां देश के साथ विदेशों में भी
प्रशंसा पा रही है । पत्थर व लकड़ी पर कलाकृतियां उकेरने में यहां के सुथारों, उस्तों का प्रमुख स्थान रहा है । विभिन्न प्रकार की बारीक, कोरनी के कार्यसे बनी लाल पत्थर की हवेलिया महलराज प्रासाद, मंदिर, जाली झरोखे, तिबारियां आदि स्थापत्य कला की अनूठी मिसाल है ।
मथेरण कला- मथेरा जाति के लोगों द्वारा साधी गई कला को मथैरण कला के नाम से जाना जाता है । वर्तमान समय में अब बहुत की कम परिवार है जोधार्मिक स्थलों पर पौराणिक कथाओं पर आधारित विभिन्न देवताओं के आकर्षक भीत्ति चित्र , गणगौर, ईसर आदि बनाने, रंगने के कार्य करते है । इसके साथ ये शादी के अवसर पर प्रयोग किए जाने वाले तोरण, बागबाड़ी भी बनाते है । इन कलाकारों द्वारा घर-घर जाकर शादी के अवसर पर ‘माया बनाने की परम्परा की आज भी निर्वहन किया जाता है । दीपावली, शरद पूर्णिमा को बनाए गये आकाशदीप, लक्ष्मी, गणेश आदि के चित्र लोकप्रिय है । इनके द्वारा बनाई व रंगाई कर तैयार की गई गणगौरों की समूचे भारत में प्रवासी राजस्थानी लोगों में मांग रहती है ।
आला गीला कारीगरी- नगर के चूनगरों द्वारा की जाने वाली कलात्मक आला गीला व रोगानी चित्रकारी की भी खूब प्रतिष्ठा है । पत्थर व चूने की दीवारों पर मोठे चूने, कली के साथ कलाकारी करना इनकी पुस्तैनी विशेषता है । चूनगरो द्वारा दीवारों पर बनाए गए मुगल कागड़ा व किशनगढ़ शैलियों के चित्र आज भी राजमहलों , सेठ-साहूकारों की हवेलियों की शोभा बढ़ा रहे है । आला गीला चित्रकारी करवाते है । आला गीला चित्रकारी से जहां दीवारों पर की सुंदरता बढ़ती है,वही उनमें मजबूती आ जाती है । आलागीला से बनी दीवारों पर चमकदार घुटाई से पानी ठहरने का भी डर नही रहता ।
निर्जीव चमड़े में सजीव कारीगरी – निर्जीव चमड़े में सजीव कारीगरी के लिए बीकानेर विख्यात रहा है । नगर में चमड़े पर कलात्मक दस्तकारी ेस बने ऊंटों के पटिए,तलपटी मोरी, पट्टी की थोक मंडी माना जाता है । इस हस्तकला में शिवबाड़ी के कलाकार प्रसिद्ध रहे है । बीकानेर में बनने वाले जूते-जूतियाों की कारीगरी देखते ही बनती है । राठौडी जूती, मखमल की फिड़ी जोड़ी, भीनमाल व फलौदी शैली की जोडी प्रमुख रूप से है ।
बीकानेर की लघु चित्रकला शैली – लधुचित्र शैलियों में बीकानेर शैली के चित्र अत्यन्त कम होते हुए भी समृद्ध कला के अद्वितीय नमूने है । मूलत: बीकानेर की ये शैली बीकानेर के अलावा राजस्थान के उत्तर में पनपी थी । यसहां शुरूआत में तो मृगनयनी नायिकाओं के चित्र बनाये जाते थे तो नायक के चित्रों में लम्बे-लम्बें केश और मुगल शैली की पगडिय़ां होती थी और साथ में ऊंट व हिरण आदि का बहुतायत से प्रयोग किया जाता है । इन चित्रों में सुनहरी मिरगान सहित लाल,हरे और नीले रंग का प्रयोग किया जाता है । बीकानेर के महलों, सेठो की हवेलीयों , जुनागढ़ मे चित्रित चित्रों का अवलोकन करने के बाद ऐसा प्रतीत होता है कि यहां के कलाकारों की कला में सम्मोहन था ।
आकर्षक ऊनी गलीचे – एशिया की सबसे बड़ी ऊन मण्डी रहा बीकानेर शहर में बने गलीचों व अन्य सामान की देश में अपनी साख है । यहां के बने गलीचों ने समय-समय पर देश – विदेशों में लगने वाले व्यापारिक मेलों में धूम मचाई है । संग्रहालयों में नगर के गलीचों को शान से सहेज कर रखा गया है । स्थानीय कारागृह में कैदियों द्वारा तथा रानीबाजार स्थित गलीचा प्रशिक्षण केन्द्र के अलावा कई घरों में भी आकर्षक गलीचे बनाते है । बीकानेर में गलीचों के लिए श्रेष्ठ चोखला ऊन का काफी मात्रा में उत्पादन होता है । बीकानेर में खूद के स्तर पर अथवा अन्य संस्थाओं से हजारों लोगों कलात्मक शॉल, कंबल, मफलर आदि बनाकर अपनी आजीविका चलाते है । वैष्णव पत्रिका